Tuesday, June 10, 2014

सूरज

सूरज

"सुनो, एक बात है जो कहनी है तुमसे…

रोज जब शाम का घुंघट ओढ़े
मिलने आती हो मुझसे
तुम्हारी आग़ोश में समाकर
सुकून मिलता है जी को
ढल जाता हूँ तुमही मे…

तुम्हारी बेपर्वा बिखरीं जुल्फोंकी स्याही में
जब डूब जाता हूँ
टूँट के बिख़र जाता हूँ मैं…

तुम आँखे मूँद लेती हो
तो बेचैन होकर
ढूँढने लगता हूँ
अपनेआप को
ढूंढता हू वजूद अपना
चमचमाते जुगनूओंके ज़िस्म में
फ़लक पे बेतहाशा बिखरे तारोंमे
मैं अपनी रोशनी, अपना वज़ूद ढूंढता फिरता हू
रातभर…स्याह अंधेरोंमे…

बरबस पलकें उठाती हो तुम
मुस्कुराकर देखती हो मुझको
तो सुबह खिलती है आँगन में
बालोंमे अटके टिमटिमाते टुकड़ोंको
बटोंरकर हथेलियोंमे
थाम लेती हो तुम
टूकडोंमे सिमटासा मैं
तुम्हारी मुस्कुराती आँखोमे
फिर ढूंढने लगता हूँ वजूद अपना…

हथेलियोंसे आँगन में
उछाल देती हो मुझे
अपनी रोशनी समेटे
चलता हूँ दिनभर
जलता हूँ दिनभर
अपनीही चकाचौंध रोशनी में
ढूंढता रहता हूँ वजूद अपना…

सुनो, मगर एक बात है जो कहनी है तुमसे…

रोज जब शाम का घुंघट ओढ़े
मिलने आती हो मुझसे
तुम्हारी आग़ोश में समाकर
सुकून मिलता है जी को
ढल जाता हूँ तुमही मे…"

वर्षा वेलणकर


Wednesday, June 4, 2014


जगणं  


पापणी ओली चिंब व्हावी, पाऊस झेलून घेताना
शहारलेल्या झाडाला, घट्ट बिलगुन जाताना
वारा यावा मृदगंध घेऊन, श्वासही भिजून जावा
हळव्या मनाच्या मातीत, तो एक क्षण रुजावा 
शिंपण त्याला पापणीतून झरणाऱ्या पावसाचं 
कधी ओल्या दिवसांचं अन मातीच्या गंधाचं 
अंकुरेल क्षण तशा पालवत जातील आशा 
विस्तारण्यासाठी त्याला पुरतील दाही दिशा?
असे क्षण रुजवून-भिजवून राखलय एक रान 
पाऊस झेलत, चिंब भिजत, जगणे एक तूफान 

वर्षा वेलणकर 

Thursday, May 22, 2014

गुल्लक

गुल्लक 

कल रात बडी उमस थी हवा में 
नींद नहीं आयी तो गुल्लक तोड़ा 
सिक्के उंडेलके बैठ गई गिनने 

कुछ रोज मिलनेवाले सिक्के थे 
इन्हें संभालके रखो तो पर्स भारी हो जाता हैं 
रोज शाम घर आतें ही पर्स खोलकर 
सिक्के गुल्लक में डाल देती हू 
जरूरत से ज्यादा होते हैं शायद 
इनका वजन उठाने की न तो हिम्मत होती हैं 
और न ही ताकद 
भारी भारी सा कुछ भी अच्छा नहीं लगता 

कुछ नए सिक्के जो सरकारने बाज़ार में लाए है 
नए है और अच्छे दिखते है तो खर्च करने का मन नहीं होता 
लाकर गुल्लक में डाल देती हू 
गिनती में कम है पर अलग है 
नया हो और अलग भी तो अच्छा लगता है 

कुछ सिक्के अब बाज़ार में नहीं चलते 
और 'अनमोल' हो गए है 
तो इसलिए उन्हें पास ही रख लिया है 
हरबार गुल्लक तोड़ती हु तो इन्हे अलग कर देती हू 
और फिर नए गुल्लक में डाल देती हू 
बिल्कुल सबसे पहले 
ये न तो गिनती में कम होते है न ही ज्यादा 

फिर ख़याल आया,
सारे के सारे सिक्के ही क्यों जमा किए है मैंने?
नोट कहा हैं?
उनका तो मोल ज्यादा होता हैं? 
और वज़न ना के बराबर? 
तो क्यों खर्च कर दिए मैंने?
क्या उन्हें रोज खर्च करना जरूरी था? 

गिनते -गिनते ख़याल आया 
यादें भी तो जमा की है मैंने दिल के गुल्लक में!

कुछ रोज मिलनेवाली, वजन से भारी 
और जरुरत से ज्यादावाली यादें;
कुछ जो नई-नई  अलग दिखनेवाली यादें;
कुछ वो जो अब मायनेँ नहीं रखती और अनमोल है 
न गिनती में कम होती है न ज्यादा 
जिन्हे जतन किया है मैंने 
साथ ही साथ उनकाभी हिसाब लगाना होगा 
जो यादें जमा नहीं की कभी 
नोटों की तरह खर्च कर दी 
जिनका मोल ज्यादा था और वजन कम 

खैर, यह सब फिर कभी होगा 
जब किसी रात  हवा में उमस होगी 
और आंखो से नींद नदारद होगी 

फिलहाल इन सिक्कोंको समेट लू 
कल जाकर दुकानदार को दे आऊ 
बदलें में नोट ले आऊ 
क्योंकी उनका वजन कम होता है 
और मोल ज्यादा!
पर हा एक बात है, नोट ख़र्च हो जाते है!

वर्षा वेलणकर  




Wednesday, May 7, 2014

तुम्हारा साथ



तुम्हारा साथ

लुत्फ़ उठाने ज़िंदगीका 
एक और साँस ली हैं 
हैराँ हैं देख के यह मन्ज़र 
ज़िंदगी तुमसे जो बाँट ली हैं 

एक कोना आँगन का
एक टुकड़ा आसमान 
एक घने पेड़ से टपका 
सपना भी साथ ही हैं 

पत्तोंसे झरती धूप हैं 
बरसात में रिसता पानी 
खुशियोंके गुल-गुंचे है 
ग़मोंकीभी सौगात मिली है 

हर एक पल, हर लम्हा  
आगाज़ नए मौसम का 
होंठोंके गुलोंसे पूछों 
अश्कोंकी नवाजीश हीं है
ज़िंदगी तुमसे जो बाँट ली हैं

वर्षा वेलणकर  


Friday, April 11, 2014

खरं खरं सांगा

खरं  खरं सांगा 

खरंच सांगा बरं मला 
देश नेमका काय असतो?
कष्टणारे दोन हात 
की शर्यतीत धावणारे पाय असतो?

खरंच सांगा मला 
देश म्हणजे नेमकं काय?
कमवून आणणारा बाप 
की घर सावरणारी माय?

खरंच जाणून घ्यायचंय मला 
देशाला कोण चालवतं?
मूठभर नेत्यांचं सरकार 
की लोकसंख्येलाच ते पेलवतं?

खरंच एकदा सांगा कुणी 
नेमकं कोण देशाची शान?
राष्ट्रभक्ती मिरवणारे चेहरे 
की जान देणारे जवान?

वर्षा वेलणकर  


Friday, April 4, 2014

वृद्धाश्रम




वृद्धाश्रम 

बये, संपली बघ गोष्टं 
आता सांगण्यासारखे काही उरले नाही माझ्याजवळ 
तू विचारलेस म्हणून सांगते आहे 
संपलेल्या त्या गोष्टीत मी ही होते गं बये 
तुला दिसली का गं मी? 
गोष्टीच्या एका अंधाऱ्या कोपऱ्यात होते मी 
माझ्या अस्तित्वाच्या दिव्यातील वात सावरत होते 
वातीच्या टोकाला पेटलेल्या अंगाराच्या जागी 
काळे काळे ठिपके चिकटले होते 
काजळी धरली होती 
तुला ही नाही दिसले का गं मी? 
तुला म्हणून सांगते, अगं माझीच गोष्टं होती ती 
रक्त संपलं गं देहातील 
मग वात जळणार कशी, सांग बघू?
आणि बये, विझल्या दिव्याला कुणी तुळशीजवळ ठेवतं का गं? 
माझं म्हणशील तर काजळी धरलीय वातीवर 
रक्तच नाही शरीरात, वातीला देऊ तरी काय?
बये, माझी गोष्टं मलाच ऐकवशील एकदा?
कुणीतरी वात पळवून नेण्यापूर्वी 
बये, माझी गोष्टं मलाच ऐकव ना गं एकदा! 

वर्षा वेलणकर 

Monday, March 31, 2014

खजाना



हर साल बढ़ती उम्र को मिली दुआओंको
संभालकर के रख देती हु मैं एक सन्दुक में
जैसे ढलती हुई शाम की संदली धुप को
अपनी शाखोंमे छुपाने की कोशिश करता हुआ
मेरे आँगन का पेड़

कुछ ग्रीटिंग कार्ड है
मेरा नाम लिखा है ऊपर
निचे किसी और की लिखी
कुछ पंक्तिया हैं
मुझे बधाई देती हुई
सबसे निचे लिखे हुए नाम के साथ
रख लिए है अपने समझ के
मैंने मेरे सन्दुक में

कुछ दुआए सरपे हाथ रख कर दी थी
वो बुजुर्ग थे और मैंने पाँव छूए थे उनके
वो छुअन भी जतन करना चाहती हू
जन्मदिन पर मिले उपहारोंके साथ

हर साल मां जन्मदिन पर
कपडे खरीद कर लाती हैं
वो जतन नही किए कभी
बारबार पेहनके पुराने कर देती हुं
हर बार, हर साल
क्योंकी मां हर साल नया कपडा दिलाती हैं

सन्दुकमें रखें बर्थ डे विश,
सरपर रखें हाथोंसे दिल में उतरी दुआए
वो कुछ चुनिंदा उपहार
संदली धूप बटोरता आंगन का पेड
सब कुछ नही संभाल पाता हैं
पत्तोंसे छनकर कुछ किरने बरस जाती हैं
आंगन में पत्तोंका ढेर भी लग जाता हैं हर शाम
उसके नीचे छुप जाता हैं
मां नें पुता हुआ वो आंगन का हिस्सा 
पर मुझे पता हैं
मां हर दिन सुबह होते ही
आंगनमें झाडू लगाती हैं

मां नें फिलहाल ही नया ड्रेस खरीदके दिया हैं 

वर्षा वेलणकर