Thursday, May 22, 2014

गुल्लक

गुल्लक 

कल रात बडी उमस थी हवा में 
नींद नहीं आयी तो गुल्लक तोड़ा 
सिक्के उंडेलके बैठ गई गिनने 

कुछ रोज मिलनेवाले सिक्के थे 
इन्हें संभालके रखो तो पर्स भारी हो जाता हैं 
रोज शाम घर आतें ही पर्स खोलकर 
सिक्के गुल्लक में डाल देती हू 
जरूरत से ज्यादा होते हैं शायद 
इनका वजन उठाने की न तो हिम्मत होती हैं 
और न ही ताकद 
भारी भारी सा कुछ भी अच्छा नहीं लगता 

कुछ नए सिक्के जो सरकारने बाज़ार में लाए है 
नए है और अच्छे दिखते है तो खर्च करने का मन नहीं होता 
लाकर गुल्लक में डाल देती हू 
गिनती में कम है पर अलग है 
नया हो और अलग भी तो अच्छा लगता है 

कुछ सिक्के अब बाज़ार में नहीं चलते 
और 'अनमोल' हो गए है 
तो इसलिए उन्हें पास ही रख लिया है 
हरबार गुल्लक तोड़ती हु तो इन्हे अलग कर देती हू 
और फिर नए गुल्लक में डाल देती हू 
बिल्कुल सबसे पहले 
ये न तो गिनती में कम होते है न ही ज्यादा 

फिर ख़याल आया,
सारे के सारे सिक्के ही क्यों जमा किए है मैंने?
नोट कहा हैं?
उनका तो मोल ज्यादा होता हैं? 
और वज़न ना के बराबर? 
तो क्यों खर्च कर दिए मैंने?
क्या उन्हें रोज खर्च करना जरूरी था? 

गिनते -गिनते ख़याल आया 
यादें भी तो जमा की है मैंने दिल के गुल्लक में!

कुछ रोज मिलनेवाली, वजन से भारी 
और जरुरत से ज्यादावाली यादें;
कुछ जो नई-नई  अलग दिखनेवाली यादें;
कुछ वो जो अब मायनेँ नहीं रखती और अनमोल है 
न गिनती में कम होती है न ज्यादा 
जिन्हे जतन किया है मैंने 
साथ ही साथ उनकाभी हिसाब लगाना होगा 
जो यादें जमा नहीं की कभी 
नोटों की तरह खर्च कर दी 
जिनका मोल ज्यादा था और वजन कम 

खैर, यह सब फिर कभी होगा 
जब किसी रात  हवा में उमस होगी 
और आंखो से नींद नदारद होगी 

फिलहाल इन सिक्कोंको समेट लू 
कल जाकर दुकानदार को दे आऊ 
बदलें में नोट ले आऊ 
क्योंकी उनका वजन कम होता है 
और मोल ज्यादा!
पर हा एक बात है, नोट ख़र्च हो जाते है!

वर्षा वेलणकर  




1 comment:

  1. Hi,
    Farach chhan aahe, Chinula far philosophical vatali kavita aani Pinu mhante ki"I didn't understand a word, otherwise poem is very, very nice ..........

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