Sunday, October 26, 2014

चलो, आज एक सपना बो दे


चलो, आज एक सपना बो दे
मिट्टी के ढेरों परतोंके नीचे
जो महीन, काली, गीली सी
हाथों को जो थाम लेती हैं
उस मिट्टी के हवाले कर दे
तेरे मेरे एक नन्हें अरमान का बिज
चलो आज एक सपना बो दे
अरमान जो मन में मेरे जागा था
तेरी ख्वाहिशोंके साथ भागा था
हमारी खुली खुली आँखों में
जब आकर बसा था वह
चलो, आज वही सपना बो दे
आंखोकी बारिशों से जतन करे
कभी छाव, कभी धुप उसपर धरे
जब करवट बदलेगा, साँस लेगा
सपना हमारा हमें आवाज देगा
तब हम थामेंगे दामन उसका
और फिर नए सिरेसे करेंगे
एक नए सफ़र का आगाज
एक कोरी करारी मंजिल की ओर
चल देंगे हम...
चलो, आज यही एक सपना बो दे
वर्षा वेलणकर

No comments:

Post a Comment