Sunday, January 26, 2014

शाम


शाम 

शाम कुछ इस तरहसे आंगनमें उतरती है मेरे 
माँ कि लोरी सुनकर 
नींदसे बोझिल पलकोंको बरबस उठाकर 
मुस्कुराते नन्हें बच्चे कि तरहा 
शाम कुछ इस तरहसे आंगनमें उतरती है मेरे

शाम कुछ इस तरहसे आंगनमें उतरती है मेरे
पत्तों कि झुरमुटसे सुनरहरी किरणे बिखेरतीं 
जैसे गालों को सेहलाती हुई  
नानीकी झुर्रियों भरी हथेलियाँ 
शाम कुछ इस तरहसे आंगनमें उतरती है मेरे

शाम कुछ इस तरहसे आंगनमें उतरती है मेरे
दिनभर उम्र काँटकर बुजुर्ग हुए सूरज कि तरहा 
जिंदगीकी सच्चाई को हवा के झोंकेमें पिरोकर 
कानोंमे बुदबुदाती हुई 
शाम कुछ इस तरहसे आंगनमें उतरती है मेरे

वर्षा वेलणकर 

1 comment:

  1. काकू. . ग्रेट. . . खूप गहिरी कविता. आणि हिन्दी प्रबुद्ध!

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