Tuesday, January 7, 2014

ख़ुशी का गांव


ख़ुशी का गांव 

ज़िन्दगी मे एक दिन ऐसा आया
सूरज ने ख़ुशी का पता बताया
हमने उसका हाथ थामकर
और किरणोकी पगडंडीपर चलकर
एक एक कर कदम बढाया
जैसे जैसे दिन बढ़ा
सूरज पूरा परवान चढ़ा
हुआ मन मे सवाल खड़ा
क्या सचमुच इसने सच है कहा?
मै मुरख तो नहीं, इसकी बातोंमे बहा?
अगर है इसे मुझसे सच्चा प्यार
तो कहा है इसमे अपनेपन की फुहार?
क्यों है जलाता और तड़पाता?
क्यों नहीं ख़ुशी के घर ले जाता?
मै झल्लाया, चिढ़कर उससे हाथ छुड़ाया
किरणोकी राहोंसे हटकर
जा बैठा एक वृक्ष की छाया
वहा बड़ा आराम मिला
जलते तन का ताप ढला
लेकर चैनसे एक जम्हाई
थोडीसी पलकें झपकाई
नींद दबे पाँवसे आकर
सिरहाने आकर इतराई
बोली, मुझे पता है ख़ुशी का घर
चल मेरा हाथ पकड़
जाना है सपनोंके गाँव
बैठ जा निंदकी नाव
ना कोई तड़प, ना कोई जलन
वहा मिलेगी प्रेमकी छाव
नींद का जादू ऐसा छाया
मुझको उसने ऐसा भरमाया
मै भुला सूरज का साथ
और कही थी उसने जो बात
नींद का जादू और गहराया
उसने सूरजसे साथ छुड़वाया
भरम, सपनोका जाल डालकर
सच्चाईको  दूर भगाया
पर किस्मत मेरी अच्छी थी
नियत सूरज की सच्ची थी
पत्तोंको थोडासा हटाकर
ढलते ढलते मुझसे मिलने आया
कहा, जाग जा मुसाफिर
दूर अभी तेरी है मंजिल
अगर ख़ुशी के घर है जाना
थक-हार के नहीं बैठना
मै कल फिर आऊंगा
साथ तुझे ले जाऊंगा
हा थोडा दूर है खुशीका गाँव
डगर मुश्किल, नहीं कोई छाव
पर मै और सच्चाई साथ तुम्हारे
तो काहेको घबराना प्यारे
चल चला चल बढ़ता जा
वो देख वहा ख़ुशी का गाँव

वर्षा वेलणकर 

3 comments: