Wednesday, August 14, 2013

दिल खुश्क हैं, नाराज हैं अपने आप सें


दिल खुश्क हैं, नाराज हैं अपने आप सें
क्यो दुनियादारी समझ ना पाया
क्यो बचा ना पाया खुद को इस ताप से
दिल खुश्क हैं, नाराज हैं अपने आप सें

थोडी थोडी हर बात समझता हैं
पर हाय रे! क्या खाक समझता हैं ?
कहता है, खुद कि हर बात जानता हू 
अपने दिल कि हर बात मानता हू 
नही कभी तोड है किसी का दिल मैने 
मोहब्बत को अपना इमान जानता हू 

दिल बिलकुल बचपन जैसा था 
आलम उसका हर दिन कुछ ऐसा था 
बादल गरज के बुलाये जाना चाहता था 
मां कि जानोपर सोना चाहता था 
बहते छत के नीचे रोना चाहता था 
वतन कि खाक में खोना चाहता था 

तो फिर क्या हुआ जो खुश्क हैं नाराज हैं अपनेआप से? 

दिल कहता हैं, मैं बहोत सोचता हू 
बात-बात पर दिल से अपने पूछा करता हू,
क्या थी ऐसी दुनियादारी जो समझ ना पाया? 
क्यो किसीने मुझको राह चलते भटकाया?
कहते थे, "जब तक उंचा ओहादा, घर उंचा, उंची शान नही  
तुम्हारे इस जीनेमें, ऐ मेरे दोस्त, कोई जान नही 
वो देखो बिल्डींगके उंचे मालेपे रहता हू 
होटल का खाना, बंद बोतल का पानी पिता हू
कार है मेरे पास,  और ऑफिस में रुतबा है 
बोलो, मेरे आगे तुम्हारी औकात क्या है?"

सुनकर सारी बात दिल बेचारा सहम गया 
देखे खुदके हालात अपनेआप मे सिमट गया
हाथ मे थी कलम, कुछ कहना चाहता था 
ताकत पर था जो नाज, वो सारा वहम गया 
लगा उसें, कौन सुनेगा दिल कि बात को 
क्या समझेंगे ये लोंग प्यार कि सौगात को 
उंची मेरी आवाज और औकात नही 
किसी को कुछ समझाऊ ऐसे हालात नही 
पर एक बात मै  हर दिल से कहना चाहता हू 
माने या ना माने कोई, बतलाना चाहता हू 
कभी किसी दिल को तुम नाराज ना करना 
ढेरो नही, पर हर दिल से थोडी बात तो करना 

पर यही पते कि बात किसीसे कह नही पाया 
औकातवाली बात को वो सह नही पाया 
अपने दिल कि बात खुद हि भूलाकर 
वो भी चल पडा एक दौड में सौगंध खाकर 
जीत जिसे कहते है वो अब बस मेरी होंगी 
किसी और कि नही बात भी अब मेरी हि होंगी 

पर वो दौड न थी उसकी 
जितने कि होड ना थी उसकी 
वो तो सिदा सादा छोटासा बच्चा था 
दिलका बिलकुल साफ और सच्चा था 
इसीलिये एकदम घबरा गया 
जब रिश्तोवाला एक मोड दौड में आ गया 
था तो पाऒमे दम, दिलमे था तुफान बडा 
जीत का था जुनून, सामने औकात का इनाम पडा 

पर  फिर नजर जो धुंदलायी थी, एकदम साफ हुई 
औकातवाली बात जलकर खाक हुई 
याद आया घर का आंगन, चुल्हेवाला खाना 
मां का आंचल, रिश्तोका ताना-बाना 

दौड पडा दिल घर कि ओर पुरा जोर लगाकर 
अपनेआपसेही एक होड लगाकर 
घर दूर खडा था, एक अकेला, सुनसान बडा 
दिल पहुंचा आंगन मे जैसे कोई मेहमान खडा 
मां ने दरवाजा खोला और आंचल की  छाव बढाई 
दिल की आंखो ने उसे देखा तो बस आंख भर आई 

अब बुंदे पलकोसे छलककर गालोंसे बहती है 
छातीपे उतरकर बारबार दिलसे पूछा करती है
क्या अब भी दिल खुश्क है, नाराज है अपनेआपसे?

वर्षा वेलणकर  

No comments:

Post a Comment