Saturday, March 9, 2013

९ मार्च, २०१३
गुलज़ार साब,
आज आपसे मिलनेका दिन शायद मुक़र्रर था। कई साल हो गए है आपके अल्फाजोसे रिश्ता जोडकर। पर उस रिश्तेका कोई नाम नहीं था और ना हीं कभी कोई दिखनेवाला वजुद। हा, पर वो जिंदा था। आज जब आपके पाँव छूने के लिए हाथ बढ़ाये तो आपने कहा "जीते रहो!" जिन्दा तो है हम। क्योंकि साँसे चल रही है. पर जब कभी अहसास की बात चली तो आपसे लफ्ज उधार लेते चले गये हम। कभी ख़ुशी में तो कभी गम में। नाराज हुए तब भी और प्यार किया तब भी। कभी कही कोई रिश्ता, कोई एहसास, कोई सपना, कोई अपना बया करनेकी बात आई तो आपहिकी सहिसे लफ्ज जड़ी तकरिरोका सहारा मिला। बदलेमें कुछ देना नहीं था हमें आपको। इसलिए लेना और आसन हो गया।
 
आज आपसे मिलने का दिन मुक़र्रर था। शाम आप एक फंक्शन मे लोंगोसे मुखातिब होनेवाले थे। मै भी आना चाहती थी। लेकिन आप और हम लोगोंमे एक दीवार है जो आपको हमसे ऐसेही मिलने नहीं देती। उसी दीवारसे झांकने का इरादा था। झरोखा ढुंढने सुबह सुबह आई तो सामने आपको पाया। आप किताबोंके बीच खड़े थे और कुछ चुनिन्दा लोंगोंसे घिरे थे। नजर आपकी वही थी किताबोंपर। कभी चश्मा उतारकर तो कभी चढाकर आप एक-एक कोना जांच रहे थे। फिर आपकी वही खरजवाली सुकुनभरी आवाज में आपने कहा, "prose बहोत है यहा. पोएट्री कम है।" सही कहा आपने। आजकल लोग बड़े प्रैक्टिकलसे हो गए है। सब कुछ सुलछा हुआ चाहते है। कठिनाई पसंद नहीं उन्हें। जो कुछ कहो इनसे तो वो बिलकुल तरतीब से सजा हुआ, एकदम स्पष्ट। किसी चीज की कोई परते खोलना उन्हें झंझट लगती है। रिश्तेभी इन्हें साफसुथरे, सुलछे हुए चाहिये। प्यार तो प्यार, नाराजगी तो नाराजगी. और जब रिश्तोंमे कोई गाँठ लग जाये तो ये डोर तोड़ देते है। अगर उनसे कहों के, "हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते". तो ये पलटकर जवाब देते है, "Come on यार, किस जमाने की बात कर रहे हो?"
 
खैर, जाने दिजिये। बात बस इतनी थी के आज आपसे मिलने का दिन मुक़र्रर था। शाम को नहीं सुबह्का वक्त तय था। आप बिलकुल वैसे ही लग रहे थे जैसे आप हमेशा होते है। जैसे आपको तसवीरों और टीवी पे देखा है। हमेशा की तरह वो सफ़ेद कुरता और पैजामा। सफ़ेद मोज़े और सफ़ेद स्पोर्टवाले जुते। आपका कुरता वैसेही कड़क था स्टार्च किया हुआ और बहोत सारी सिलवटोंसे भरा। पर फिर भी कड़क था। तना हुआ। हर उस शोहरतमंद इन्सान की तरह जिसे लोग ऊँचा तो उठाते है पर कभी कोई इतनीसिभी बात हो जाए तो उंगली उठानेसे भी नहीं चुकते। वो सारी सिलवटे चुभती तो है पर शख्सियत की मजबुतीकोभी बया करती है।
 
तो बात ये है, के आज आपसे मुलाकात हुयी। आपके पास आकर बैठने का मौका मिला। आपने नाम पूछा, काम पूछा। जब मैंने कहा के पिछले दिनों आपसे कांटेक्ट करना मुशील हो रहा था, तो आपने वो दीवार भी हटा दी जो आपसे मिलनेसे रोकती है। और जो किताब मैंने आपके हाथों में धर दी थी उसपर आपने लिखा, वर्षा, टू यू, गुलज़ार।
 
एक बेनाम रिश्ता जो आपके लफ्जोसे कई साल पहले जुड़ा था आज आपके हाथोने उस रिश्ते को एक पहचान दी है। अभीभी मै उस भीड़ का हिस्सा हु जो आपसे मुखातिब होना चाहती है। आपकी लफ्जोकी उधारी पर जीना चाहती है। कुछ सहिसे लफ्ज जड़कर आपसे कहना चाहती है के, गुलज़ार साब, वुई लव यू!
 
Varsha Welankar

6 comments:

  1. एका विलक्षण माणसाच्या साधेपणाचा करून दिलेला विलक्षण परिचय आणि इतरही खूप काही!!! मस्त, खूप जीवंत आणि मनकवडं, चातक पक्ष्याच्या पावसासारखं वर्णन वाटलं.

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  2. Minti, tu kharach nashibvan aahes ki tula itake utkat kshan anubhavata aale aani tyahunhi mothe mhanje te shabd bathyahi karata aale... asech sundar anubhav aamchya paryant pohachavat ja.... tuzya madhyamatun aamhihi te apratyaksha anubhau.....

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  3. wwwaaa...khup divasani kahitari chan vachayla milale...!!!

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